छिपला केदार यात्रा में सामिल हुए 700 से अधिक यात्री-
अस्कोट : महेश पाल
10 साल के विकलांग एवम् 80 साल के वृद्ध ने भी की यात्रा
दिनांक 9 अक्तूबर को छिपला यात्रा का पहला दल जारा जिबली गांव से गया।जिसमे लगभग 700 से अधिक यात्री सामिल हुए।
14 किलोमीटर की इस दुर्गम यात्रा को 10 साल के विकलांग एवम् 80 साल के वृद्ध ने भी सफलता पूर्वक संपन्न किया साथ ही भनार नामक पवित्र स्थान पर 103 बच्चो का जनेऊ संस्कार संपन्न हुआ।
छिपला केदार की यात्रा हर 3 साल बाद आयोजित की जाती हैं।
सीमान्त जनपद पिथौरागढ़ के बंगापानी तहसील में गोरी नदी घाटी के मध्य उच्च हिमालय में स्थित छिपला कोट अपने में विशेष धार्मिक महत्व रखता है. समुद्र तल से लगभग 4200 मीटर की ऊचाई एवं बंगापानी के जारा जिबली गांव से लगभग 15 किलोमीटर की कठिन पैदल चढ़ाई के बाद स्थित यह बुग्याल क्षेत्र प्राकृतिक सौन्दर्य, जैव-विविधता के साथ देवी-देवताओं का निवास स्थान भी माना जाता है।
गोरी छाल से जारा जिबली, खड्तोली शिलिंग एव् कनार आदि गाँवों के लोग प्रत्येक तीसरे वर्ष श्रावण भाद्र के मास में छिपलाकोट एवं नाजूरीकोट की यात्रा करते है।इसे छिपला जात नाम से जाना जाता है. यात्रा में विशेष यह है कि यहां बालकों का व्रतपन (जनेउ / मुण्डन संस्कार) किया जाता है. मान्यता है कि बिना व्रतपन वाले लोग एवं महिलाओं का इस क्षेत्र में जाना वर्जित है. जिन बालकों का व्रतपन होना होता है उन्हें नौलधप्या बोला जाता है. सभी नौलधप्या सफेद पोषाक, सफेद पगड़ी, हाथों में षंख एवं लाल-सफेद रंग का नेता (ध्वज), गले में घंटी लेकर नंगे पांव चलते हैं. 3 या 4 दिवसीय यह धार्मिक यात्रा जिबली तोक से आरम्भ होकर लगभग 14-15 किलोमीटर पैदल मार्ग यात्रा के प्रथम पड़ाव,बाननी षुष्कर मन्दिर पहुंचती है. फिर मन्दिर में पुजारी, जगरिया एवं बोण्या (अवतरित देवता) की गरिमामयी उपस्थिति में विशेष देव वाद्य यंत्रों शंख, भकोर (धात्विक पाइप यंत्र) की ध्वनि से देवताओं का आह्वान होता है. एक-एक कर देवी-देवता अवतरित होते है, सभी यात्री आशीर्वाद लेकर यात्रा की कुशलता की कामना करते हुए यात्रा के दूसरे पडा्व टाकुला जो गांव से दिखाई देने वाली अन्तिम धार पहुँचते हैं। फिर पर कुछ समय बिश्राम के बाद यात्रा आगे को प्रस्थान करती है।
रात्रि विश्राम हेतु गुफा है।जिसे भनार के नाम से जाना जाता है । जिसमे जितने भी लोग दल में होते है भगवान की कृपा से सब लोग बड़े आराम से आ जाते हैं. यहां की व्यवस्था यहां पर अन्वाल (भेड़ चराने वाले) करते हैं. जिन्हें कर के रूप में घी और धनराशी दी जाती है. दुसरे दिन प्रातः स्नान के बाद छिपला कोट (यानी नाजुरी ) के लिये चढ़ाई आरम्भ होती है. यहां से आगे का मार्ग चट्टानी, कठिन एवं कष्टकारी होता है. अतः सभी बालकों को जगरिया एवं अवतरित देवता अपने मार्गदर्शन में सबसे आगे लेकर चलते हैं.
समुद्र तल से अत्यधिक उंचाई में स्थित होने के कारण यहां ऑक्सीजन की अत्यधिक कमी है, जो इस कठिन मार्ग को और भी जटिल बनाती है.
चूली , तेजम-खैया, नन्दा शिख से गुजरते हुऐ छिपला कोट (नाजुरी)पहुंचते हैं. मौसम साफ होने पर छिपला कोट से पंचाचूली की चोटियों की झलक नजदीक से पा सकते है. यह क्षेत्र उच्च हिमालयी औषधियों के भण्डार है, ब्रहम कमल, जटामॉसी, कटकी, कीडा-जड़ी (फंगस) यहां बहुतायत में है. छिपला कुण्ड पहुंचकर सभी पूजा-अर्चना कर व्रतपन (मुण्डन) का कार्य करते हैं एवं कुण्ड में पवित्र डुबकी लगाकर, कुण्ड की परिक्रमा करते हैं. अत्यधिक ठण्ड व मौसम के प्रतिकुल होने की अत्यधिक संभावनाओं के कारण यहां ज्यादा न रूक तीसरे पड़ाव, फिर से भनार की ओर प्रस्थान करते है
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संपादक – फास्ट न्यूज़ उत्तराखण्ड
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