रक्षाबंधन पर होगी सांकेतिक विश्वप्रसिद्ध बग्वाल -कत्यूर काल से ही रक्षाबंधन के दिन खेली जाती है बग्वाल

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पाटी/लोहाघाट। विकासखंड अंतर्गत देवीधुरा कस्बे में स्थित विश्व प्रसिद्ध मां वाराही धाम में कत्यूर काल से खेली जाने वाली विश्व प्रसिद्ध बग्वाल (पाषाण युद्ध) आज रक्षाबंधन के अवसर पर खेली जाएगी। बहरहाल इस बार भी कोविड – 19 के चलते बग्वाल का आयोजन सांकेतिक रूप में किया जाना सुनिश्चित किया है। बताते चलें कि इस बार बग्वाल में 75 लोग ही शिरकत कर पायेंगे। ये दूसरी मर्तबा है कि बग्वाल को कोविड – 19 के चलते सांकेतिक रूप दिया गया है । बग्वाल के दौरान जिले के जिलाधिकारी विनीत तोमर औऱ एसपी भी मौजूद रहेंगे। प्रशासन के मुताबिक बग्वाल के दौरान कोविड – 19 नियमों का विशेष ध्यान रखा जाएगा। बग्वाल में शामिल होने वाले लोगों को कोरोना की निगेटिव रिपोर्ट साथ लानी जरूरी होगी।

चम्पावत के उपजिलाधिकारी अनिल गब्र्याल को मेला मजिस्ट्रेट, जिला पंचायत के अपर अधिकारी राजेश कुमार को मेलाधिकारी और सीओ अशोक कुमार को मेले की सुरक्षा व्यवस्था की जिम्मेदारी सौंपी गई है। इस बार प्रशासन ने आम नागरिकों के अलावा राजनीतिक जनप्रतिनिधियों से भी बग्वाल में न आने की अपील की है। बताते चलें कि कत्यूर काल से वर्तमान तक प्रतिवर्ष चार खाम सात थोक के लोगों द्वारा पूर्ण हर्षोल्लास के साथ इसे मनाया जाता है। ज्ञातव्य हो कि देवीधुरा में स्थित यह धाम सम्पूर्ण विश्व का एकमात्र वाराही धाम है। एक ओर जहां श्रावण मास की पूर्णिमा के दिन ही संपूर्ण राष्ट्र भाई-बहन के अटूट संबंध रक्षाबंधन को मनाता है, वहीं दूसरी ओर उसी दिन वराह पर्वत के लोग कत्यूर काल से बग्वाल (पाषाण युद्ध) खेलते आ रहे थे। लेकिन बीते 4 वर्षों से हाईकोर्ट नैनीताल के आदेशनुसार पत्थर युद्ध का रूपांतरण फल फूलों की वर्षा द्वारा सम्पन्न किया जाता है। लेकिन फ़ल – फूलों से खेली जाने वाली बग्वाल कब पत्थर युद्ध का रूप ले लेती है यह अब भी पहेली बना हुआ है। साक्ष्यों व किवदंतियों को गौर से देखा जाय तो मां के इस पावन प्रांगण में बग्वाल संभवत: पाषाणकाल से ही प्रचलन में रही होगी। लोकमान्यताओं व मंदिर परिसर के आसपास पौराणिक साक्ष्य स्पष्टï करते हैं कि बग्वाल के प्रचलन से पहले खोलिखाड़ – दुबाचौड़ के इस पावन मैदान में श्रावण मास की पूर्णिमा के दिन किनावर विधान से तंत्र विद्या साधने हेतु नरबलि की प्रथा प्रचलन में थी। इसके साक्ष्य अब भी मन्दिर परिसर में मौजूद हैं। क्षेत्रीय जानकारों के मुताबिक उस वक्त भी नर बलि चार खाम के लोगों द्वारा संपन्न कराई जाती थी। इसमें प्रतिवर्ष हर खाम के लोगों द्वारा बारी-बारी से इस कार्य को संपन्न किया जाता था। लोकमान्यताओं और इस विधान को सम्पन्न करने वाले लोगों के वंशजों व क्षेत्रीय इतिहास के पुख्ता जानकारों के अनुसार एक बार नर बलि की बारी चम्याल खाम की थी किन्तु उस खाम में जिस राठ (वंश) की बारी थी उस वंश में एक वृद्धा और उसका एक पौत्र ही जीवित थे।

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जब मंदिर व्यवस्था और उस समय के सम्मानित लोगों ने सभा कर वृद्धा के पौत्र को नरबलि के लिए नामित किया तो वृद्धा अपने वंश को खत्म होता देख काफी व्यथित हुई और मां की आराधना करने लगी। कहा जाता है कि मां ने उस वृद्धा को बालरूप में दर्शन देकर ताम्र दंडिका दी और स्वयं अन्तध्र्यान हो गई। जब वृद्धा ताम्र दंडिका को लेकर मंदिर व्यवस्था और पीठाचार्य के पास गई तो उन्हें आश्चर्य हुआ और ताम्र दंडिका को गौर से देखने पर दंडिका में लिखी लिपि का सार कुछ इस प्रकार बताया जाता है जिसमें लिखा था आज के बाद इस धरा पर कोई नरबलि नहीं होगी, मेरे गणों को प्रसन्न करने हेतु कोई अन्य उपाय अपने विवेक से सिद्ध किया जाए। तब बताया जाता है कि चार खाम सात थोक और मंदिर व्यवस्था प्रमुख पीठाचार्य सभी प्रमुखों ने अपने विवेक से बग्वाल खेलना सुनिश्चित किया औऱ इसके साथ-साथ शर्त और नियम भी तय किए जिसमें कहा गया कि यदि एक व्यक्ति के बराबर खून निकल आए तो बग्वाल रोक दी जाएगी। तब से लेकर आज तक चार खाम और सात तोक के लोग बग्वाल रुकवाने की जिम्मेदारी मां वाराही के ऊपर छोड़कर सभी पूर्ण आस्था के साथ इस परंपरा को पाषाणकाल से निरंतर निभाते आ रहे हैं। वर्तमान में भी मान्यता के अनुरूप सभी चारखाम साथ थोक के पडतीदारों द्वारा इसे अनेक बाधाओं के बाद भी पूर्ण हर्षोल्लास के साथ मनाया जा रहा है। बताते चलें कि वर्तमान के परिपेक्ष्य में और हाईकोर्ट नैनीताल के हस्तक्षेप के बाद बग्वाल को कुछ परिवर्तित करके मनाया जा रहा है जहां पत्थरों के स्थान पर फल फूलों को मंदिर प्रांगण खोलिखाड़ दुबाचौड़ में रख दिया जाता है और बग्वाली वीरों को फलों से हर्षोल्लास से बग्वाल खेलने को कहा जाता है, लेकिन इसके बावजूद बग्वाली वीर फलों को छोड़ पत्थर युद्ध पसंद करते हैं। हाईकोर्ट की रोक और क्षेत्रीय प्रशासन की इतनी रोकटोक के बावजूद बग्वाल समाप्ति के बाद मैदान में एक मनुष्य के बराबर रक्त देखने को मिलता है। क्षेत्रीय बुजुर्गों के मुताबिक पहली मर्तबा 1914 ई में अंग्रेजों द्वारा बग्वाल को रोकने का प्रयास किया था लेकिन वो असफल रहे। वहीं दूसरी बार वर्ष 2020 में कोविड-19 के चलते प्रशासन ने बग्वाल को रोकने का प्रयास किया था लेकिन बग्वाल नहीं रुक पाई। बता दें कि बग्वाल चम्पावत जिले की ही नहीं बल्कि समूचे उत्तराखंड की पहचान व सम्मान के रूप में जानी जाती है जो पाषाणकाल से चली आ रही है।

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