बनाग्नि से लाखों रुपये की बन सम्पदा, व जीव जन्तु खाक हो गये है, लेकिन विभाग कुम्भकरणी नींद सोया हुआ है।

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हर साल करोडो़ का बजट कागजों में खर्च होता है-

भिकियासैंण।(एस आर चंद्रा) उत्तराखंड क्रांति दल के वरिष्ठ नेता व उत्तराखंड गवर्नमेंट पैशनर्स संगठन के अध्यक्ष तुला सिंह तड़ियाल ने एक प्रैस विज्ञप्ति जारी कर कहा है कि, देशभर के सभी हिमालयी राज्य आजकल भारी बनाग्नि की चपेट में हैं इसका सबसे ख़तरनाक प्रभाव उत्तराखंड के जंगलों पर पड़ा है। बन विभाग के सूत्रों के मुताबिक यहां एक ही दिन में यानी 27 अप्रैल को 196 जंगलों में आग लगने की घटनाएं हुई हैं, जिसके कारण यहां 316.77 हैक्टेयर बन क्षेत्र जलकर खाक हो गए हैं जिसमें करोड़ों रुपए की बन सम्पदा के अलावा सैकड़ों प्रजाति के जीव जन्तु दुर्लभ प्रकार की जड़ी-बूटियां बनो में लगी आग की भेंट चढ़ गए हैं। सरकार की ओर से कागजों में इस आग को बुझाने के लिए भारी इन्तेज़ामात हुए हैं,हर वर्ष मार्च महीने से जून तक प्राय: सभी बन क्षेत्रों में बकायदा फायर वाचरों की नियुक्ति की जाती है, इस पर करोड़ों रुपए हर वर्ष खर्च किए जाते हैं। रस्म अदायगी के तौर पर कुछ जगहों में आग बुझाने की फोटो भी शोसल मीडिया में देखे जाते हैं इतना ही नहीं हैलीकॉप्टर से भी आग बुझाने के यत्न हुए हैं, परन्तु जंगलों का धधकना बन्द नहीं हुआ है। गर्मियों में पहाड़ की ठंडी हवा का लुत्फ उठाने की हशरत लिए यहां आने वाले सैलानियों ने भी इस दम घोंटू वातावरण से बचने के लिएअपने अपने घरों का रुख किया है इससे यहां का पर्यटन भी बूरी तरह प्रभावित हुआ है। यहां आम लोगों का सांस लेना दुभर हो गया है। तड़ियाल ने इसके लिए सरकार की नीतियों को जिम्मेदार ठहराया है। आज जंगलों पर से ग्रामीणों का अधिकार खत्म हो गया है,उनके हक़ हकूब छीने गए हैं गांव घरों में भी बन एक्ट लागू कर यहां जनता का जीना दुश्वार हो गया है। आये दिन गांवों में रहने वाली जनता जंगली जानवरों का शिकार हो रही है। उन्होंने अपने क्षेत्र की एक घटना का उदाहरण देते हुए बताया कि, 17 अप्रैल 1964 को एक बार उनके इलाके में एक छोटे से जंगल में आग लगीं उस आग को बुझाने के लिए कुछ ही पलों में वहां दस बारह गांवों के लोग इकट्ठा हो गए, आग इतनी भीषण थी कि, उसको बुझाने में श्री हिम्मत सिंह, सरोप सिंह, ख्याली राम पुजारी, मात्र उन्नीस वर्ष के युवा मोहन सिंह व निकटवर्ती स्कूल के एक प्रधानाध्यापक श्री मोहन सिंह रावत सहित कुल पांच लोगों को अपने प्राणों की आहुति देनी पड़ी । तब कहीं उस दावानल पर काबू पाया जा सका। उन दिनों लोग जंगलों को अपने बच्चों की तरह पालते थे। उस दौर में आग लगने के ऐसे विरले ही मामले हुआ करते थे। जंगल में आग लगी नहीं गांवों में आवाज़ पड़ जाती थी, लोग पलक झपकते ही जंगल पहुंच जाते थे।

आज़ जंगल में आग लग रही है लोग तमाशबीन होकर देख रहे हैं आज किसी के मन में भी शासन व विभाग का ज़रा सा भी खौफ नहीं रहा, देखने से ऐसा प्रतीत होता है जैसे आग लगाने की प्रतिस्पर्धा चल रही हो । आज बनीकरण के नाम पर हर साल करोड़ों रुपए खर्च हो रहे हैं परन्तु अभी तक एक भी कोई ऐसा नया जंगल विकसित नहींं हो सका है। मौजूदा जंगल ग्रामीण जनता की नि: स्वार्थ सेवा के प्रर्याय हैं। बरसात के आते ही ग्रामीण क्षेत्रों की जनता जंगलों में बृक्षारोपड़ एक महोत्सव के रूप में किया करते थे। क्या कारण है आज यहां की जनता का अपने ही लगाए गए बनों के प्रति मोह भंग हो गया है ? इसके कारणों को समझना बहुत जरूरी है। तभी असल मायने मेंं बनों को बचाने का प्रयास सार्थक होगा।

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