आजादी के अमृत महोत्सव वर्ष में हमारे गणितीय धरोहर पर चन्दन घुघत्याल (डिपार्टमेंट ऑफ मैथेमेटिक्स द दून स्कूल)-पड़ें-

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रिपोर्ट शिवेंद्र गोस्वामी अल्मोड़ा।

(चन्दन घुघत्याल)

गणितीय ज्ञान का सम्बद्ध मानव सभ्यता से अनादिकाल से ही रहा है। आदि मानव ने गुफाओं में जो भी भीत्ति चित्र या सन्देश उकेरे उनमे गणितीय संग्रचनाओं का भरपूर समावेश रहा है। घुमंतू मानव ने अपने पालतू जानवरों की संख्या के आकलन हेतु गणितीय भाषा या संकेत का उपयोग किया और कालांतर में गुफाओं में रहते हुवे पत्थर पर उकेरते हुवे संकेत देना सीखा। धीरे धीरे गणित मानव सभ्यता का एक अविभाजित अवयव बन गया। बिभिन्न नदी घाटी सभ्यताओं के उत्खाना से यह पता चलता है कि गणित के ज्ञान का उपयोग हजारों साल पहले भी मानव ने किया। सिंधु घाटी सभ्यता से प्राप्त अवशेषों से पता चलता है कि उन्हें गणित और लिखने का अच्छा ज्ञान था। उत्खनन में प्राप्त ईंटों के माप में ४:२: १ का अनुपात था।

साथ ही भार मापने के लिए उन्हें दसवें, बीसवे , पचासवे , सौवे आदि भागों का भी ज्ञान था। लम्बाई मापने के लिए मोहन जोदड़ो मीटर स्केल का उपयोग करने के साक्ष्य मिले है। सिंधु घाटी में ही मिटटी के बर्तन बनाने के लिए चक्के का उपयोग होने के भी प्रमाण मिले हैं , यानि उन्हें बृत्त का भी ज्ञान था। धन्य है यह भारतीय विरासत जो कि करीब तीन हजार सालों से गणित और विज्ञानं में हमारे पारंगत होने का प्रमाण देती है। वेद, पुराण और ज्योतिष में समाहित गणित के ज्ञान के बारे में सुनते आये है। ज्योतिष विद्या तो पूर्णतः गुणन , फलन और आकलन पर ही आधारित है। ग्रहों की दशा और दिशा का सटीक ज्ञान ज्योतिष के आधार पर भारतीय गणितज्ञ सदियों से बताते आ रहे है। वैज्ञानिक और कंप्यूटर के वर्तमान दौर में किये गए गुणन फलन और भारतीय गणितज्ञों तथा ज्योतिषाचार्य द्वारा सदियों पहले किये गए आकलन में समानता और सत्यता यही बताती है कि हम गणितीय धरोहर के मर्मज्ञ रहे हैं। गणित हमारे रगों में संचारित है।

ईसा पूर्व २२०० में ही हमारे गणितज्ञों ने दो समतलों के बीच के कोण को मापने कि विधि बता दी थी। दुनियाँ को शून्य का ज्ञान तो हमारे गणितज्ञों ने दिया ही , साथ ही त्रिकोणमित्ति , बीजगणितए अंकगणित और ऋणात्मक अंकों के बारे में भी हमारे मूर्धन्य गणितज्ञों ने ही बताया। प्राचीन भारत में ज्ञान की गंगा सतत बहती रही थी, पीढ़ी दर पीढ़ी ज्ञान का संचरण मौखिक आदान.प्रदान से होता था। लेकिन ईशा पूर्व १५०० से ८०० बर्षों में संस्कृत भाषा में चार वेदों ऋगवेद, सामवेद, यजुर्वेद, और अथर्वेद की संरचना हुई। संस्कृत भाषा में होने के कारण और वेदों का पठन. पाठन केवल वर्ग विशेष के लिए ही होने की मान्यता के कारण इस ज्ञानपुंज का प्रचार प्रसार पूरी दुनिया में नहीं हो पाया, अन्यथा वह ज्ञान जो हजारों साल पहले से ज्ञात था उसका श्रेय पंद्रहवीं . सोलहवीं सदी में पश्चीमी विद्वानों को न जाता। यजुर्वेद में उल्लिखित मन्त्रों में दस की घात बारह यानि दस खरब ; (ट्रिलियन) तक की संख्या का भी ज्ञान था। अश्वमेघ यज्ञ में मंत्र जाप और हवन की गिनती के लिए सौ के लिए सत , हजार के लिए सहस्र, दस हजार के लिए अयुत, एक लाख के लिए नियुत, दस लाख के लिए प्रयुत, एक करोड़ के लिए अर्बुद, दस करोड़ के लिए न्यार्बुद, आदि संस्कृत शब्दों का उपयोग हुवा है। इससे यह महसूस होता है कि हमारी संस्कृति तो सदैव ज्ञान की भण्डार रही है। लेख आलेख, संगरचनाए रंगोली, धार्मिक कर्म कांड सभी तो गणित के समन्वय से भरपूर रहे हैं।

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यानि गणित हमारी सभ्यता का महत्वपूर्ण अवयव रहा है। मानव सभ्यता में गणित के सतत समावेश को दृष्टिगत करते हुए महान वैज्ञानिक आइंस्टीन ने कहा कि हमारा सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड गणितीय भाषा में लिखा गया है। यानि ब्रह्माण्ड को समझने के लिए गणित का ज्ञान हर किसी को होना आवश्यक है। गणित ज्ञान केवल प्रश्न हल करना और अंक गणित सीखना या अंकों से खेलना ही नहीं अपितु तर्क वितर्क, विश्लेषण, और समझ बनाना ही गणित है। गणित ही एक ऐसा विषय है जो कि सभी विषयों की रीढ़ की हड्डी है। यदि हर जगह हर वस्तु तथा हर तथ्य में गणित मूर्त या अमूर्त रूप में समाहित है तो हम कह सकते हैं कि गणित हम सभी से मूल रूप से जुड़ा है। हम गणित में है और गणित हममें हैं। हमारी विरासत ही गणितीय है और हमारे डीएनए में गणित है तो इस से डर क्यों ? कॉन्सेप्ट्स को बार बार करते रहने, समझने और दृष्टिगत करते हुए हम गणित को एन्जॉय कर सकते हैं। अतः किसी भी बात को तथ्यात्मकए तार्किक और सुनियोजित रूप से प्रस्तुत करना ही तो गणितीय ज्ञान है। हमारी हार्ट बीट का ७५.-८० बार एक मिनट में धड़कना , रक्तचाप का ८०-१२० रहना , हमारे शरीर में २०६ हड्डियों का होना, ३२ दाँतों कि उपस्थिति, माथे से पंजे की दुरी और नाभि से पंजे की दुरी का अनुपात १ .६ होना आदि सभी तो गणित है। कुर्सी.मेज बनाने में कोण समकोण, क्षेत्रफल, परिमाप का उपयोग, दीवार या घर बनाने में प्रयुक्त गणित के ज्ञान को देखा जा सकता है। यानि उठने से लेकर सोने तक हम गणितीय संक्रियाएँ करते हैं। अतः गणित हमारी दिनचर्या का अति आवश्यकीय भाग है। इसी को हमारे पूर्वजों ने समझा और मूर्ति कला, स्थापत्य कला और हस्त कला में गणित का उपयोग किया। चारों ओर घटित घटनाओं को वैज्ञानिक और गणितीय ढंग से समझ कर गणित की शाखाओं का विकास किया। ईशा पूर्व और बाद सभी कालखंडों में भारतीय गणितज्ञों ने गणित के विकास में अपना विशेष योगदान दिया। श्रीधराचार्य ने द्विघातीय समीकरणों को हल करने का सूत्र खोजा, ब्रह्मगुप्त ने सबसे पहले आधुनिक गणित में शून्य का उपयोग कर समीकरणों के बारे में जानकारी दी। श्रीधराचार्य ने गोले का आयतन मापने का सूत्र भी बनाया। समकोण त्रिभुज में कर्ण का वर्ग बाकी दो भुजाओं के वर्ग के बराबर होता है, जिसे हम पाईथागोरस प्रमेय कहते हैं यह प्रमेय तो बौधायन ने ईशा पूर्व ८०० सदी में ही दे दिया था | जबकि पाइथागोरस ने ५३० ईसा पूर्व यह प्रमेय दिया। महान गणितज्ञ और खगोलविद ब्रह्मगुप्त ने सातवीं शताब्दी में ऋणात्मक संख्याओं के लिए नियम बनाये।
महान गणितज्ञ और खगोलविद ब्रह्मगुप्त ने सातवीं शताब्दी में ऋणात्मक संख्याओं के लिए नियम बनाये। उन्होंने ही बताया कि दो ऋणात्मक संख्याओं का गुणनफल धनात्मक होता है और एक ऋण और एक धन संख्या का गुणनफल ऋण होता है।

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इस तथ्य को उस समय के यूरोपियन गणितज्ञों ने स्वीकार नहीं किया और उन्हें ब्रह्मगुप्त कि बात अटपटी लगी। सदियों बाद सत्रहवीं शताब्दी में कैलकुलस के जनक गॉटफ्रीड विल्हम लीबनीज ने कैलकुलस के विकास में शुन्य और ऋणात्मक संख्याओं का उपयोग किया तो ब्रह्मगुप्त के प्रति समूचे विश्व समुदाय ने कृतज्ञता ब्यक्त करी। बारहवीं शताब्दी में हमारे गणितज्ञ भाष्कराचार्य ने बीजगणित, अंक गणित, ज्यामिति और ट्रिगोनोमेट्री के क्षेत्र में काफी काम किया। उन्होंने डायोफैंटीन समीकरणों को हल करने की बिधि बताई। डायोफैंटीन समीकरण हल करना गणितज्ञों के लिए एक अनसुलझी पहेली बनी हुयी थी। इन समीकरणों में चर राशियों की संख्या कुल समीकरणों से ज्यादा होती है | भास्कराचार्य के अभूतपूर्व योगदान की जितनी भी प्रसंसा कि जाय वह कम ही है। उन्होंने बताया कि किसी भी संख्या को यदि शून्य से भाग दिया जाय तो उसका मान अनंत होता है। और अनंत तथा किसी भी संख्या का जोड़ अनंत होता है। ५०० AD के बाद का युग न केवल भारतीय गणित के लिए स्वर्णिम काल रहा बल्कि पुरे विश्व में गणित और एस्ट्रोनॉमी में काफी प्रगति हुई। ५०० ।AD में आर्यभट्ट ने राहू और केतु को दैत्य मानने वाली अवधारणा को गलत मानते हुए सूर्य और चंद्र ग्रहण के कांसेप्ट को वैज्ञानिक ढंग से समझाया। आर्यभट ने वर्गमूल निकालना, सामन्तर श्रेणी का जोड़ निकालना भी सिखाया। इसी कालखंड में बराहमिहिर ने गणित के विकास में अभूतपूर्व योगदान दिया ट्रिगोनोमेट्रिक आईडेंटीज, इंडेटेरमिनंट समीकरण, कॉम्बिनेशन आदि कॉन्सेप्ट्स को खोजने का श्रेय बराहमिहिर को जाता है।

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आर्यभट्ट ने अप्रमेय संख्या पाई का मान दशमलव के चार स्थान तक निकाला, जो कि भविष्य के लिए मील का पत्थर साबित हुवा और आज पाई का मान ट्रिलियन स्थान तक निकाला गया है और यह भी कम रोमाँचकारी नहीं है। ईशा पूर्व तीसरी सदी में आचार्य पिंगला ने बाइनरी नंबर सिस्टम (लघु और गुरु स्वर) द्वारा चन्द्रशास्त्र ग्रन्थ कि रचना की थी। यानि वर्तमान कंप्यूटर प्रोग्रामिंग के बाइनरी नंबर्स शून्य और एक के प्रयोग की नीव हजारों साल पहले हमारे गणितज्ञ पिंगला ने डाल दो थी। हमारी पुरातन विरासत के गणितज्ञों में बौधायन, कात्यायन, पाणिनि (ब्याकरण के मर्मज्ञद्ध) यजनवालिक्या (वेदी गणना का काम) आर्यभट्ट १, आर्यभट्ट २, भास्कर १, ब्रह्मगुप्त , भास्कर २ , महावीर, वराहमिहिर, श्रीधराचार्य जैसे प्रसिद्ध गणितज्ञों ने ईशा पूर्व पांचवी सदी से ईशा बाद ग्यारहवीं सदी तक गणित के विकास में अमूल्य सहयोग दिया। मध्यकालीन मुग़ल कालीन भारत में नारायण पंडित, संगमग्राम के माधव, परमेश्वर, नीलकंठ सोमयाजी आदि गणितज्ञ हुवे। आधुनिक गणितज्ञों में राधानाथ सिकदर ने माउंट एवेरेस्ट की ऊंचाई ज्ञात की थी। रामानुजन ने प्राइम नंबर्स, तथा अंकों पर आधारित सैकड़ों प्रमेय दी। समरेन्द्रनाथ रॉय ने मल्टी वरिएट एनालिसिस पर काम किया है | गणित शास्त्र एक विज्ञान ही है, नित प्रतिदिन नए नए प्रयोग और खोजें होती रहेंगी। ब्रह्माण्ड के गूढ़ रहस्यों को हमारे गणितज्ञ हल करते रहेंगे। आपसी समन्वयए ज्ञान के आदानण्प्रदान, परिचर्चा और विषय की सरलता तथा सुगमता के साथ हमें विरासत में मिले गणितीय ज्ञान से हम जीवन के हर क्षेत्र में भारत माँ का मान बढ़ा सकते हैं। ज्ञान पाने या बाँटने में हम अनादिकाल से अव्वल रहे हैं और अव्वल ही रहेंगे। हम भारतीय गणित प्रेमी हैं, तर्क वितर्क और संवेदनशीलता हमारी रग रग में समाया है। विरासत में मिले गणितीय ज्ञान को हमें नव अनुसन्धान और अनुभव प्रयोग से सर्व व्यापी, सर्व ग्राही बनाने की जरुरत है।


चन्दन घुघत्याल पाई विरासत में मिले गणितीय ज्ञान को हमें नव अनुसन्धान और अनुभव प्रयोग से सर्व व्यापी, सर्व ग्राही बनाने की जरुरत है। यही हमारे वैज्ञानिकों, गणितज्ञों और पुरातन मनीषियों के प्रति सच्ची श्रद्धा होगी।

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