सूचना महाक्रांति के इस दौर में अब सारी दुनिया आपकी जेब में, हिंदी पत्रकारिता दिवस पर विशेष रिपोर्ट

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दया जोशी
हल्द्वानी। भारत में हिन्दी पत्रकारिता के जनक जुगुल किशोर सुकुल ने 30 मई 1826 को जब कलकता के कोलू टोला नामक मोहल्ले की 37 नंबर आमड़तल्ला गली से पहला हिन्दी अखबार शुरू किया तो उसका नाम ‘‘उदन्त मार्तण्ड’’ रखा। इसका शाब्दिक अर्थ तो ‘‘उगता सूरज’’ था ही लेकिन इसके शब्दिक अर्थ से अधिक महत्वपूर्ण इसका भावार्थ था। लेकिन डेढ साल में ही डूबने वाले इस ‘‘मार्तण्ड’’ ने जो रोशनी भविष्य की पीढ़ी को दिखाई उसका लाभ स्वाधीनता आन्दोलन को भी मिला तो समाज को अब भी निरन्तर मिल रहा है। पहले समाचार या विचार अखबारों में पढ़े जाते थे, फिर समाचार आकाशवाणी के रूप में लोगों के कानों तक पहुंचने लगे। बाद में टेलिविजन का जमाना आया तो लोग समाचारों सजीव देखने भी लगे। इन इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों की बदौलत अशिक्षित लोग भी देश-दुनिया के हाल स्वयं जानने लगे। सूचना महाक्रांति के इस दौर में अब सारी दुनिया आपकी जेब में आ गई है। आप कहीं भी हों, आपके जेब में पड़ा मोबाइल आपको दुनिया का पल-पल का हाल बता देता है।
सूचना प्रोद्योगिकी के इस युग में तो हर आदमी सूचना संचार का कार्य कर रहा है, विश्वसनीयता का संकट

विश्वसनीयता को पत्रकारिता का प्राण माना जाता है और इसी विश्वास पर लोग अखबारों में छपी बातों को सत्य मान लेते हैं लेकिन आज की आधुनिक पत्रकारिता व्यावसायिक हो गयी है इसलिए वर्तमान समय में पत्रकारिता की विश्वसनीयता को बनाये रखना एक चुनौती हो गयी है।

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अंग्रेज मसूरी, शिमला, नैनीताल और दार्जिलिंग जैसे ठण्डे इलाकों में रहना पसन्द करते थे, इसलिए उन्होंने अपनी इन्हीं बसागतों से अखबार भी शुरू किए।
अंग्रेज छापेखानों की भारी भरकम मशीने कैसे इन पहाड़ी इलाकों में पहुंचाते होंगे, यह कल्पना ही की जा सकती है। उस जमाने में देहरादून से अधिक छापेखाने पहाड़ों की रानी मसूरी में हुआ करते थे, जिनमें मफेसिलाइट प्रेस भी शामिल था। इतिहासकारों के अनुसार नैनीताल में भी समय विनोद अखबार छापने के लिये प्रिंटिंग मशीन लग गयी थी।

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गढ़वाल में मसूरी के बाद टिहरी नरेश ने भी टिहरी में छापाखाना लगाया था। उस जमाने में प्रेस लगने पर शासन-प्रशासन के कान खड़े हो जाते थे। आशंका यह रहती थी कि कहीं कोई सरकार के खिलाफ बगावती साहित्य तो नहीं छाप रहा ! आधुनिक पत्रकारिता का मूल अखबारी पत्रकारिता ही है और अखबारी पत्रकारिता को जन्म देने वाला कोई और नहीं बल्कि छापाखाना या प्रिंटिंग प्रेस ही है।

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यद्यपि आज पत्रकारिता छापेखानों से कहीं आगे साइवर स्पेस युग में चली गई है और पुराने प्रिंटिंग प्रेस भी लगभग गायब ही हो गए हैं। फिर भी पत्रकारिता का प्रतीक अब भी ‘‘प्रेस’’ ही है। अखबार और प्रेस एक ही सिक्के के दो पहलू होते थे। कभी बिना प्रेस के अखबार छपने की कल्पना नहीं की जा सकती थी।

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