124 मंदिरों का समूह है विश्व विख्यात जागेश्वर धाम

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ईश्वरी दत्त भट्ट

हल्द्वानी। जागेश्वर धाम मंदिर परिसर में १२४ मंदिर हैं जो भगवान् शिव को उनके लिंग रूप में समर्पित हैं। हालांकि प्रत्येक मन्दिर के भिन्न भिन्न नाम हैं। कुछ शिव के विभिन्न रूपों पर आधारित और कुछ समर्पित हैं । एक मंदिर शक्ति को समर्पित है जिसके भीतर देवी की सुन्दर मूर्ति है। एक मंदिर दक्षिणमुखी हनुमान तो एक मंदिर नवदुर्गा को भी समर्पित है।

अधिकतर मंदिरों के भीतर शिवलिंग स्थापित हैं। मंदिरों के नामों पर आधारित शिलाखंड पट्टिकाएं मंदिरों के प्रवेशद्वारों पर लगाए गए है। जागेश्वर मंदिर परिसर के अधिकाँश मंदिर उत्तर भारतीय नागर शैली में निर्मित हैं जिस में मंदिर संरचना में उसके ऊंचे शिखर को प्रधानता दी जाती है। इसके अलावा बड़े मंदिरों में शिखर के ऊपर लकड़ी की छत भी अलग से लगाई जाती है। कुछ मंदिर दक्षिण भारतीय शैली में भी बनें हैं।  सोचने पर मजबूर परिवहन साधन की क्रांति से पूर्व देश के एक छोर से दूसरे छोर तक कला का मिश्रण किस तरह संभव हुआ होगा!

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कहा जाता है कि जागेश्वर मंदिर कैलाश मानसरोवर यात्रा के प्राचीन मार्ग पर पड़ता है। अधिकाँश मंदिरों का निर्माण कत्युरी राजवंश के शासकों ने करवाया था, तत्पश्चात इन मदिरों की देखभाल की चन्द्रवंशी शासकों ने किया। मंदिर के शिलालेखों में मल्ला राजाओं का भी उल्लेख है।

जागेश्वर मंदिर में भगवान् शिव से सम्बंधित दो मुख्य उत्सव मनाये जातें हैं। निःसंदेह एक है शिवरात्रि और दूसरा है श्रावण मास जो जुलाई से अगस्त के बीच पड़ता है।

स्कन्द पुराण के मानस खण्ड में जागेश्वर ज्योतिर्लिंग की व्याख्या की गयी है। इस पुस्तिका के अनुसार ८वां. ज्योतिर्लिंग, नागेश, दरुक वन में स्थित है। यह नाम देवदार वृक्ष पर आधारित है जो इस मंदिर के चारों ओर फैले हुए हैं। इस मंदिर के आसपास से एक छोटी नदी बहती है – जटा गंगा अर्थात् शिव की जटाओं से निकलती गंगा। दंतकथाएं कहतीं हैं अपने श्वसुर दक्ष प्रजापति का वध करने के पश्चात, भगवान् शिव ने अपने शरीर पर पत्नी सती के भस्म से अलंकरण किया व यहाँ ध्यान हेतु समाधिस्थ हुए। कहानियों के अनुसार यहाँ निवास करने वाले ऋषियों की पत्नियां शिव के रूप पर मोहित हो गयीं थीं। इससे ऋषिगण बेहद क्रोधित हो गए थे और भगवान् शिव को लिंग विच्छेद का श्राप दिया था। इस कारण धरती पर अन्धकार छा गया था। इस समस्या के समाधान हेतु ऋषियों ने शिव सदृश लिंग की स्थापना की व उसकी आराधना की। उस समय से लिंग पूजन की परंपरा आरम्भ हुई। यह भी कहा जाता है कि भूल ना होते हुए भी श्राप देने के जुर्म में शिव ने उन सात ऋषियों को आकाश में स्थानांतरित होने का दण्ड दिया।

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