मॉ ने बनाया सातों-आठों पर्व को यादगार- श्रद्धांजलि

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महत्वपूर्ण लोक उत्सव है सातों-आठों का पर्व-

ईश्वरी दत्त भट्ट

नैनी/ जागेश्वर (अल्मोड़ा)। 18 व 19 अगस्त 2022 को सातों-आठों पर्व की धूम रही। इन दो दिनों में गांव की सभी युवतियां और महिलाएं गौरा और महेश (शिव और पार्वती) को पूजा करती हैं। इसी पूजा के दौरान हमारी माताजी पूजा के दौरान भगवान शंकर व गौरा के साथ ही हमेशा के लिए विदा हो गई। भगवान उन्हें अपने श्री चरणों मे स्थान दें।

गंवारे के साथ में माता जी

मान्यता है कि इसमें गौरा और महेश की जिन आकृतियों की पूजा की जाती है, उन्हें गंवारे कहा जाता है। ये गंवारे खेतों में बोई गई फसलों- सूंट, धान, तिल, मक्का, मडुवा, भट आदि की बालियों से पौंध बनाई गई मानव आकृतियां होती हैं।

गंवारे को झूला झुलाते हुए

उनको गौरा का रूप देने के लिए साड़ी, पिछौड़ा, चूडियां, बिंदी से पूरा शादीशुदा महिला की तरह श्रृंगार कराया जाता है। महेश को भी पुरुषों का परिधान पहना कुर्ता, पजामा और ऊपर से शॉल भी ओढ़ाया जाता है। दोनों को मुकुट भी पहनाए जाते हैं। इससे पूर्व पंचमी के दिन पांच प्रकार के अनाज तांबे के बर्तन में पंचमी को ही भिगो दिया जाता है, उस बर्तन के बाहर पांच जगह थोड़ी-थोड़ी मात्रा में गाय का गोबर लगाया जाता है, जिसमें दूब घास और टीका लगाया जाता है।

बीच मे माँ

सातों के दिन दोपहर को महिलाएं सजधज कर नौले या धारे (पानी के स्रोत) पर पंचमी को भिगाए गए बिरुडों को धोती हैं, धोने से पहले नौले या धारे पर पांच जगह टीका लगाया जाता है और शगुन गीत भी गाए जाते हैं। बिरुड़े धोकर वापस भिगोकर रख दिए जाते हैं और उसमें से गेहूं की पोटली निकालकर गवरा की पूजा के लिए लेकर जाते हैं। सातों के दिन गौर की ही पूजा होती है। इस पूजा के लिए गेहूं की पोटली के साथ-साथ फूल, सीजनल फल और अन्य पूजा की सामग्री भी रखी जाती है। पूजा के बाद महिलाएं गाने गाती हैं और नृत्य भी करती हैं। जबकि अष्टमी को महेश्वर यानी शिव की पूजा होती है। इस दिन भी महिलाएं सातों-आठों की पूजा के साथ ही कहानी भी एक-दूसरे को सुनाती हैं।


इस त्यौहार की शुरुआत पंचमी से हो जाती है जिसे बिरुड़ पंचमी कहते हैं। बिरुड़ पंचमी इसलिए कहा जाता है क्योंकि इस दिन बिरुड़े भिगाए जाते हैं, जिनकी सातों और आठों (सप्तमी और अष्टमी) को पूजा की जाती है। बिरुड़े पांच प्रकार के अनाज होते हैं जिन्हें एक तौले (एक प्रकार का तांबे का बर्तन) में पंचमी को ही भिगो दिया जाता है। उस बर्तन के बाहर पांच जगह थोड़ी-थोड़ी मात्र में गाय का गोबर लगाया जाता है जिसमें दूब घास और टीका लगाया जाता है, इसके साथ साथ इस बर्तन में एक पोटली में गेहूं भी बांधकर रखे जाते हैं।

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अष्टमी को भी सभी महिलायें इकठ्ठा होती हैं और पूजा करती हैं, पंडित जी द्वारा पूजा कराये जाने के बाद इस दिन कोई एक महिला सातों-आठों कि कथा (कहानी) सुनाती है।

कथा के अंश कुछ इस प्रकार हैं –

किसी गाँव में एक बुजुर्ग दंपत्ति रहते थे जिनके सात पुत्र थे और सभी की पत्नियाँ भी परन्तु किसी भी बेटे को कोई संतान नहीं थी जिससे सास –ससुर बहुत दुखी थे। एक दिन ससुर कहीं से घर आ रहा था तो उसे रास्ते में पानी की मटमैली धारा बहती दिखाई दी। उस समय बरसात का भी मौसम नही था तो वो सोचने लगा कि यह पानी कहाँ से आ रहा है और उस धारा के साथ- साथ चलते हुए एक नौले पर पहुच गया जहाँ कुछ महिलायें बिरुड़े धो रही थीं। मटमैला पानी उन बिरुडों का ही था.
उसने पूछा – “ये आप सभी क्या कर रही हैं”.

महिलाओं ने जवाब दिया “हम नहा-धोकर बिरुड़े धो रहे हैं और फिर गौरा महेश की पूजा करेंगे ”

उसने फिर पूछा “ये क्या होते हैं और इस पूजा को करने से क्या होता है। इस पूजा की विधि भी हमें बताइए?”

महिलाओं ने कहा “पांच अनाजों को भिगोया जाता है, भिगाने से पहले नहा-धोकर घर की लिपाई –पुताई की जाती है। घर के पांच कोनों में दिया जलाया जाता है। टीका लगाकर फिर बिरुड़े भिगाते हैं, लेकिन भिगाते समय उसको चखना नहीं चाहिए। इससे पूजा सफल नहीं मानी जाती है और इस पूजा को करने से जिनके घर में अन्न नहीं होता अन्न आता है, जिसके घर में धन नहीं होता धन आता है और जिसके घर में संतान नहीं होती संतान आती है.”

यह सुनकर वह व्यक्ति चला गया और घर पहुंचकर अपनी पत्नी को इसके बारे में बताया। पत्नी ने अपनी एक बहू को बुलाया जो उसको सबसे लाडली थी और उसको बिरुड़े भिगाने को कहा, उसने भिगोते समय एक दाना चख लिया, सास ने उससे कहा बहू तुमने इसे चखकर इस विधान को खंडित कर दिया. फिर अपनी दूसरी बहू को बुलाया जो भी उसकी लाडली थी पर पहली वाली से कम, उसने भी बिरुड़े भिगोने से पहले चख लिए, ऐसे करते –करते सास ने 6 बहुओं को बोला और सभी ने भिगोने से पहले बिरुड़े चख लिए। अब एक ही बहू बची थी जो सास को पसंद नहीं थी, उससे बाहर के सारे मुश्किल काम कराये जाते थे और उसके साथ ठीक से व्यवहार भी नहीं किया जाता था। इसलिए सबसे आखिरी में उसे कहा गया कि तुम बिरुड़ भिगाओ. बहू ने नहाया, दिया जलाया और बिरुड़े भिगा दिए, उसका पति भी घर पर ही था. कुछ महीनों में ही बहू गर्भवती हो गयी। दूसरी सातों-आठों आने से पहले उसका पुत्र भी हो गया।
अब घर में एक संतान तो थी पर वो उस बहू की थी जिसको सास पसंद नहीं करती थी, सास ने अपने पति से कहा कि बड़ी मुश्किलों के बाद घर में संतान आई है तो पंडित से इसका विचार तो करना पड़ेगा, पति ने कहा ठीक है मैं पंडित जी के पास जाऊंगा। इस बीच सास खुद पंडित को जाकर पैसे दे आई और बोली कि जब मेरा पति आपसे बच्चे के बारे में बात करने आएगा तो आप बोलना यह संतान अन्न, धन और परिवार की सुख समृद्धि के लिए ठीक नहीं है, पंडित भी मान गया।

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कुछ दिन बाद फिर सातों-आठों आने वाली थी, सास ने बहू को कहा कि बहू मुझे खबर मिली है कि तेरे पिता कि मृत्यु हो गयी है, तेरी मां शोक में है, तुझे वहां जाना चाहिए, बच्चे की फिक्र मत कर मैं इसका ध्यान रखूँगी। बहू रोती–बिलखती अपने मायके पहुची, जिस दिन वह पहुंची उस दिन आठों थी और मायके में पूजा चल रही थी, उसको देखकर उसकी मां ने पूछा बेटी तेरा कुछ ही दिन पहले पुत्र हुआ है और आज पर्व का भी दिन है पर तू यहाँ क्या कर रही है? बेटी ने मां को पूरी कहानी बताई, मां ने कहा बेटी मुझे कुछ ठीक नहीं लग रहा, तेरे पुत्र को कुछ हो सकता है तू वापस जा. मां ने बेटी को सरसों दिया और कहा कि तू रास्ते में ये सरसों फेंकते हुए जाना, अगर ये सरसों जमकर हरे हो गये तो समझना तेरा पुत्र जिन्दा है। इसी बीच सास अपने पति को पंडित के पास जाने को कहती है और पंडित वही सब बातें उसे बोलता है जो सास ने बोलने को कही थी, हताश ससुर घर लौटता है और बताता है कि इस घर में एक ही संतान है और वो भी अपशगुनी, सास मौके का फायदा उठाकर बोलने लगती है कि ये सब किस्मत की बात है, अब हमारे पास एक ही रास्ता है, इस बच्चे को मारने का, वह बच्चे को ले जाकर पास ही के पानी से भरे नौले में गिरा आती है।

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बच्चे की मां रोती हुयी पीछे सरसों फेंकती हुई आ रही थी, जैसा कि उसकी मां ने उसे कहा था और सरसों भी हरा होता जा रहा था, चलते–चलते वह उसी नौले पर पहुची जहाँ उसका बेटा फेंका गया था। वह नौले पर रुकी और दूध में सनी अपनी छाती को धोने लगी तो बच्चे ने मां के गले में पहनी डोर पकड़ ली और फिर मां ने उसको बाहर निकला। वह बच्चे को लेकर घर गयी, सास ने देखकर पुछा बहू ये बच्चा तो मैंने मरने के लिए फेंक दिया था तुझे कहाँ से मिला। बहू बोली सासू मां आपकी करनी का फल आपको और मेरी करनी का मुझे। मैं हमेशा लोगों की भलाई करती हूँ, किसी का बच्चा रोता है तो उसे चुप कराती हूँ, किसी के जानवर खुल जाते हैं तो उन्हें बांध देती हूँ और किसी का अनाज भीग रहा होता है तो उसे भीगने से बचाती हूँ इसलिए आज मेरे कर्मों का फल मुझे मिला है। सास बोलती है सही कहा बहू मैंने कभी किसी का भला नहीं किया, किसी का बच्चा रोता था तो मैं उसको और दो थप्पड़ मार देती थी, किसी के जानवर बंधे होते थे तो मैं उन्हें खोल देती थी, अनाज सूख रहा होता था तो मैं उसमें पानी डाल देती थी।

अष्टमी (आठों) के दिन पूजा में रखी गेहूं की पोटली को खोलते हैं गौरा महेश को चढ़ाने के साथ-साथ उसको वहाँ उपस्थित महिलाएं एक दूसरे के सिर में भी चढ़ाती हैं और फिर घर भी लेकर आती हैं, घर में भी सभी परिवार के सदस्यों को ये बिरुड़े चढ़ाये जाते हैं और बाकी भिगाए हुए जो बिरुड़े होते हैं उनको पकाकर खाया जाता है और आस- पड़ोस के परिवार भी एक दूसरे को बिरुड़े बांटते हैं।

पूजा के दौरान ही महिलाएं गले में डोर बांधती हैं, कहा जाता है कि बच्चे ने अपनी मां के गले कि जो डोर पकड़ ली थी उसके बाद से ही सातों और आठों में पूजा करने वाली महिलाएं गले और हाथ में वह डोर बांधती हैं।

आठों के बाद गौरा और महेश्वर कुछ दिन तक उसी घर में रहते हैं जहाँ इनकी पूजा की जाती है। फिर सभी गाँव वाले मिलकर कोई एक दिन तय करते हैं और गाने -बाजे के साथ धूमधाम से नजदीक के मंदिर में उनको पहुचाकर आते हैं। इसे गंवार सिवाना कहा जाता है। मंदिर में भी नाच -गाने होते हैं और इस तरह अगले साल फिर गौरा महेश्वर के वापस लौटने कि कामना की जाती है।

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