लिव इन रिलेशनशिप को मान्यता कितनी जायज -मुश्किल से 10 प्रतिशत मामले ही पहुंच पाते हैं शादी तक… 

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लिव-इन रिलेशनशिप के मुश्किल से 10 प्रतिशत मामले ही शादी तक पहुंच पाते हंै, 90 प्रतिशत मामलों में रिश्ते टूट ही जाते हैं। ठीक उसी तरह, जिस तरह आजकल के नवयुवक प्रेमी-प्रेमिकाएं जितनी तेजी से प्रोपोज करते हैं, उतनी ही तेजी से ब्रेकअप और फिर उतनी ही तेजी से प्रेमी भी बदल लेते हैं। ऐसे प्रेमी-प्रेमिकाओं को लिव-इन रिलेशनशिप जैसी लुभावनी प्रथा सही लगती है, क्योंकि उन्हें एक दूसरे के साथ बिना शादी के पति-पत्नी जैसा रहने का मौका मिल जाता है और पति-पत्नी जैसे रिश्ते का अर्थ आप अच्छी तरह समझते हैं। इसीलिए रिश्ता टूटने के बाद सबसे ज्यादा जीवन बर्बाद लड़कियों का होता है। विशेषकर विवाह के समान भरण-पोषण और उत्तराधिकार के अधिकार प्रदान करना। सहवास में जन्मे बच्चों की कानूनी स्थिति को स्पष्ट करना, विशेष रूप से वैधता और उत्तराधिकार अधिकारों के सम्बंध में। रिश्ता टूटने के बाद अक्सर लड़कियां आत्महत्या जैसे कदम उठा लिया करती हैं।  

वैश्वीकरण के प्रभाव और पश्चिमी संस्कृति के संपर्क में आने के कारण अब लिव-इन रिलेशनशिप को अधिक स्वीकार्य माना जाने लगा है। यह सहवास के नैतिक परिणामों तथा विवाह और परिवार के पारंपरिक विचारों पर प्रश्न उठाता है। आजकल के युवा लिव इन रिलेशनशिप को वैवाहिक जीवन से बेहतर मानने लगे हैं। आज की पीढ़ी शादी और लिव इन रिलेशनशिप को एक जैसा ही मानती है। लेकिन शादी और लिव इन रिलेशनशिप में अंतर है। ये प्रथा जितनी आसान लगती है उतनी ही पेचीदा है। फायदे से अधिक हैं उससे कहीं ज्यादा इसके नुकसान हैं। इस तरह के सम्बंध प्राय: पश्चिमी देशों में बहुतायत में देखने मिलते हैं। समाज का एक वर्ग इसे भारतीय संस्कृति के लिए सबसे बड़ा खतरा मानता है। तो वहीं दूसरा वर्ग इसे आधुनिक परंपरा में बदलाव के रूप में देखते हुए स्वतन्त्र जीवन जीने के लिए वरदान मानता है। हर चीज़ के अपने-अपने फायदे और नुकसान होते हैं।    

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हाल ही में अधिनियमित उत्तराखंड समान नागरिक संहिता (यूसीसी) ने लिव-इन पार्टनरशिप के लिए व्यापक विनियमों की एक शृंखला स्थापित की, जिसका लक्ष्य उन्हें विनियमित करना और उनकी कानूनी मान्यता की गारंटी देना है। लेकिन इनसे काफी चर्चा भी हुई है और सरकारी निगरानी तथा गोपनीयता को लेकर चिंताएं भी पैदा हुई हैं। पिछले 20 वर्षों में, लिव-इन रिलेशनशिप-जिसमें जोड़े बिना शादी किए एक साथ रहते हैं। भारतीय समाज और कानून में अधिक स्वीकार्य हो गए हैं। अतीत में भारतीय समाज पारंपरिक मूल्यों पर आधारित था और प्रतिबद्ध रिश्ते का एकमात्र स्वीकृत रूप विवाह था। लिव-इन पार्टनरशिप को अक्सर कलंकित माना जाता था तथा समाज द्वारा इसे नकारात्मक दृष्टि से देखा जाता था। हालांकि, वैश्वीकरण के प्रभाव और पश्चिमी संस्कृति के संपर्क में आने के कारण अब लिव-इन रिलेशनशिप को अधिक स्वीकार्य माना जाने लगा है। यूसीसी अधिनियम के तहत 74 प्रकार के सम्बंधों पर प्रतिबन्ध है, जिनमें से 37 पुरुषों के लिए तथा 37 महिलाओं के लिए हैं। धार्मिक नेताओं या सामुदायिक नेताओं को उन जोड़ों को अपनी स्वीकृति देनी चाहिए जो निषिद्ध सम्बंधों की इन श्रेणियों में आते हैं। यदि रजिस्ट्रार यह निर्धारित करते हैं कि सम्बंध सार्वजनिक नैतिकता या रीति-रिवाजों का उल्लंघन करता है तो वे पंजीकरण से इनकार कर सकते हैं। उत्तराखंड यूसीसी लिव-इन पार्टनरशिप को कानूनी संरक्षण और मान्यता प्रदान करना चाहता है, लेकिन यह गोपनीयता और सरकारी हस्तक्षेप के महत्वपूर्ण मुद्दे भी उठाता है। नए नियमों को इस तरह लागू करने के लिए कि सामाजिक सद्भाव को बढ़ावा मिले और व्यक्तिगत अधिकारों की रक्षा हो, रिश्तों को नियंत्रित करने और व्यक्तिगत स्वायत्तता को बनाए रखने के बीच संतुलन बनाना आवश्यक होगा। यदि समान नागरिक संहिता व्यक्तिगत कानूनों का स्थान ले ले, तो सहवास में महिलाओं की समानता की गारंटी पर ध्यान दिया जाना चाहिए।  

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आलेख- डॉ. सत्यवान सौरभ कवि, स्वतंत्र पत्रकार   हरियाणा

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