उत्तराखंड का लोकपर्व भिटौल चैत्र मास के पहले दिन से शुरू

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उत्तराखंड राज्य में चैत्र मास के पहले दिन से भिटौल लोकपर्व की शुरुआत हो जाती है। कुमाऊं में इसे भिटौलि के नाम से व गढ़वाल में कलेऊ के नाम से जाना जाता है। विवाहित महिलाएं इस चैत्त मास के भिटौलि लोकपर्व का बेसबरी से इंतजार में रहती हैं।


विवाहित बेटी, वहनों को मायके से मां व पिता व भाई के द्बारा चैत्र के मास मुलाकात के तौर पर कुमाऊं में भिटौलि के नाम से गढ़वाल में कलेऊ के नाम से खीर, पूड़ी व कपड़े देकर मुलाकात करने की प्रथा प्राचीन काल से ही चली आ रही है।
चैत्र मास में भिटौलि लोकपर्व उत्तराखंड के बहिन, बेटियों को मुलाकात व खाने पीने व कपड़े देने की प्रथा एक अपने आप में अलग ही पहचान है।

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लेकिन अब समय के अभाव के कारण व उत्तराखंड के पलायन के कारण आजकल बहिन बेटियों को खाने पीने व कपड़े आदि देने की परंपरा कम होती जा रही है। अलग-अलग राज्यों में रह रहे मायके वाले अपनी बहिन, बेटियों को खाने पीने व कपड़े की जगह पर पैसा दे देते हैं। बहिन बेटियां उन पैसों भिटौलि लोकपर्व मना लेते हैं।

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इस लोकपर्व के पीछे एक कहावत है। प्राचीन काल में शुक्रवार को रात्रि के समय एक भाई अपनी बहन के लिए भिटौलि सामग्री ले गया तब बहिन सोई हुई थी, उसने सोचा थक गई होगी कोई बात नहीं उसके सामने सारी सामग्री रख दी। अगले दिन शनिवार होने से उस भाई को रात्रि में घर जाना था। जब बहिन की नींद खुली तो उसने कहा मैं भी भूखी और मेरा भाई भिटौलि लाया था भाई भी भूखा, इस बात उसने अपने प्राण त्याग दिए। कहा जाता है कि बहिन अगले जन्म घुघती पक्षी बनी, हर साल भूखी की टोर में चैत्र के मास में घुघुती पक्ष आवाज करती है।

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इस पर गाना भी है, ना बासा घुघुती चैते की, यादें ऐ जाछी मिकें मैत की। स्वर्गीय गोपाल बाबू गोस्वामी ने इस भिटौलि लोकपर्व गाने के द्धारा बताया है। बाटि लागि बैरियाता चेलि बैठ डोली में, बाबू की लाडली चेलि बैठ डोली में, तियर बाजियू लियालौ बैठ डोली में। इस तरह आज भी यह त्योहार धूमधाम से मनाया जाता है।

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